Tuesday, March 29, 2016



हिन्दी में दोहे लेखन का प्रयास किया है। पेश करता हूँ ..............................



शेष फिर कभी .............।

 मनोज चारण

Sunday, March 20, 2016


नमस्कार !

    कल 23 मार्च है, इस देश के महान सपूतों भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु का शहीदी दिवस। मन में अजब सी उदासी है, अजब सी खलिस है, कि क्यों वो लोग चढ़ गए थे फांसी पर इस देश के लिए। यदि हम गौर करेंगे तो हमे पता चलेगा कि, इस देश के लिए जान देने वाले अधिकांश क्रांतिकारी बीस से सत्ताईस वर्ष कि आयुवर्ग के थे। भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु, चंद्रशेखर आजाद, अशफाक़उल्ला, प्रतापसिंघ, खुदीराम बोस ये सब तो पच्चीस वर्ष के भी नहीं हुए थे, यानी कि ये लोग तो भारतीय आश्रम व्यवस्था के अनुसार तो अपने ब्रह्मचर्य कि उम्र तक भी पार न कर सके थे, ऐसे में इनको सोच कैसे बन पायी होगी क्रांति की राह पर चलने की, कैसे इन लोगों ने समझाया होगा अपने-आप को कि, जबकी उनकी उम्र किसी के काले केशों में उलझने की थी उस उम्र में वो अदालतों के केशो में उलझ गए। जब उनकी उम्र थी दुनिया कि रंगीनीयों में खोने की उस वक्त वे काल-कोठरियों के अंधेरों से टकरा रहे थे। क्या था उनके मन में, क्या थी उनकी जिजीविषा?
       समझ में नहीं आता ना, कैसे आएगा समझ में जब तक हम अपने-आप को उस स्थान पर नहीं रखेंगे, कैसे समझ में आएगा जब तक कि हम खुद से ही सवाल नहीं करेंगे कि, हमने इस देश में जन्म क्यूँ लिया है? नहीं समझ में आएगा तब तक जब तक हम यही सोचेंगे कि, कोई भऊँ नृप, हमऊँ का हानि।
    हमे समझना पड़ेगा कि, आज के दौर के तथाकथित क्रांतिकारी जो अपने आपको भगतसिंह का उत्तराधिकारी मानते है और कहते हैं, वो भगतसिंह के चरणों की मिट्टी की हौड़ नहीं कर सकते।
    एक अजीम-ओ-शान क्रांतिकारी समूह के श्रीचरणों में मैं वंदन करता हूँ, और अपनी कृतज्ञता प्रकट करता हूँ कि, हे महानायकों मैं इसलिए आजाद भारत में सांस ले पा रहा हूँ कि, आपने इसके लिए अपने प्राण तक न्योछावर कर दिये थे। मैं शुक्रिया अदा करता हूँ आप सब शहीदों का, और अपने दौर के देश-विरोधी बाते करने वालों की करतूतों पर मैं शर्मिन्दा भी हूँ।
             शेष फिर कभी ...........................। 

मनोज चारण (गाडण) कुमार
रतनगढ़ (चूरु) राज.
मो. 9414582964

Thursday, March 3, 2016



        अर्थात गुरु के उपदेश एवं शास्त्रों से जड़बुद्धि भी साधारण काव्य रच सकता है, किन्तु श्रेष्ठ काव्य तो प्रतिभा द्वारा ही सृजित होता है।
        जब आचार्य भामह ने ये कहा होगा तब उनकी मनःदशा क्या रही होगी, क्या उनके मन में प्रतिभा की छवि बनी होगी, क्या उनके सामने किसी वाल्मीकि, किसी व्यास या किसी कालीदास का चित्र था, या फिर भामह ने यूं ही प्रलाप कर दिया था। निःसंदेह भामह के सामने कोई तो परिकल्पना जरूर थी जो उन्हें समझा रही थी, बता रही थी कि, प्रतिभा का कोई सानी नहीं होता, प्रतिभा का कोई जबाब नहीं होता। हम इतिहास में अनेक उदाहरदेख सकते है। वाल्मीक, कालीदास के उदाहरण तो जग जाहीर हैं ही, लेकिन हम देख सकते है कि हमे इतिहास बताता है कि, किस प्रकार एक साधारण सा दिखने वाला लड़का चंडीगढ़ में अचानक किसी खिलाड़ी के स्थानापन्न के रूप में उतरता है और विश्व क्रिकेट में पहले हरफनमौला के रूप में ही अपनी काबिलियत नहीं दिखाई बल्कि भारत को पहला विश्वकप भी दिलवाया। इसी प्रकार हम ओशो का उदाहरण दे सकते है, मुगल शासक अकबर को भी हम इसी में शामिल कर सकते है।
       तो भामह ने बिलकुल सही कहा है कि, प्रतिभा का कोई मोल नहीं होता, अभ्यास से एकलव्य और अश्वथामा बना जा सकता है लेकिन अर्जुन और कर्ण सिर्फ पैदा ही हो सकते है। अर्नोल्ड स्वर्ज्नेगर बना जा सकता है, लेकिन चार्ली चैपलिन पैदा ही होते है, ध्यानचंद, मोहम्मद अली, लारा, सचिन, दारासिंह, मोहम्मद रफी, किशोर सिर्फ पैदा ही हो सकते है।  
        अतः यदि पहली बार आपके मन में कोई पंक्ति आ रही है तो आप समझे कि आप पर ईश्वर कि मेहर हो रही है, आपको वो अपनी प्रतिभा से आलोकित करना चाहता है। बस उस पंक्ति को अपनी तरफ से सँवारने कि कोशिस न करें उसके साथ बहें और बहने दे कविता की धारा को, और वास्तव में आपको प्रतिभा मिली है तो निःसंदेह आप एक कवि बन कर ही रहेंगे।

                                  शेष फिर कभी ......................................।

                                          मनोज चारण (गाडण) कुमार
                                  रतनगढ़ (चूरु) 
नमस्कार दोस्तों !

आज जब हिन्दी साहित्य को पढ़ रहा था तो अग्निपुराण का एक श्लोक पढ़ने मे आया तो आज इसी श्लोक पर ही चर्चा कर लेते है, -


नरत्वं दुर्लभं लोके, विद्या तत्र सुदुर्लभा।
कवित्वं दुर्लभं तत्र, शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा॥
-अग्निपुराण

अर्थात इस लोक में मनुष्य होना बहुत ही दुर्लभ होता है, उसमें भी मनुष्य होकर विद्या-अर्जन करना और भी दुर्लभ काम होता है, विद्यावान होकर कवि होना उससे भी दुर्लभ और कवि होकर कवित्व की शक्ति प्राप्त करना तो महान दुर्लभता है।

सीधा सा अर्थ है, की चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद हमे ये मनुष्य शरीर मिलता है और हमारा विद्या-ग्रहण करना भी एक महानता का काम होता है। विद्यावान तो इस दुनिया में बहुत से मिल जाते है लेकिन उन लोगों में कवि बनने का सौभाग्य बहुत कम लोगों को मिलता है। हाँ कुछ लोग अभ्यास करके कवि बन जाते है, लेकिन कवि बनना और कवि होना बहुत अलग होता है। किसी भी भाव को जीवंत करना कवि ही कर सकता है, उगते सूर्य को करोड़ों लोग देखते है, ढलते भी देखते है, पंछियों का कलरव बहुत लोग सुनते है, लेकिन इस सबके साथ तादात्म्य सिर्फ कवि ही कर सकता है। किसी के आंसुओं को अपनी आँखों से बहाने का काम कवि ही कर सकता है। किसी के दुख को बांटने का काम तो बहुत से लोग कर सकते हैं, लेकिन किसी के दुख से खुद को साझा करने का जो हुनर कवि के पास होता है वैसा हुनर होना ही उसे समाज में अलग मुकाम पर खड़ा कर देता है। आम जन को नहीं दिखता, आमजन को नहीं महसूस होता वो कवि को दिखता है, महसूस होता है। इसलिए कवि इस समाज में हमेशा से श्रद्धा का पात्र रहा है।
लेकिन आज के मंचों के कुछ खिलंदडों ने कवि का मतलब मज़ाक बना के रख दिया है। ठीक वैसे ही जैसे कुछ लोभी और लालची अध्यापकों ने शिक्षक को मज़ाक बना दिया है। इसमें सुधार भी हमे ही करना होगा और फिर से कालीदास और तुलसीदास के चरित्र को जीवंत करना होगा।

- मनोज चारण (गाडण) “कुमार”
रतनगढ़ (चुरू)