Tuesday, December 6, 2016


कल एक विशेष दिवस था और इस विशेष दिवस पर मुझे अपने हिन्दुत्व पर गर्व हुआ और मैंने खुद से पूछा कि मैं हिन्दू कैसे हूँ ?

जो जबाब मिला उसे एक कविता के रूप में आप सबके सामने पेश है।

शेष फिर कभी ........................।


मनोज चारण "कुमार"

Wednesday, April 20, 2016

नमस्कार सभी को !

इस देश में हो क्या रहा है ? कोई धणी-धोरी नहीं है देश का। सब सत्ता के मद में और सत्ता सुंदरी के लिए यूं परेशान हैं कि जाने बिना सत्ता के इस दुनिया में कुछ नहीं है। सही भी है सत्ता के बिना है भी क्या ? पर कल तक जो चाल-चरित्र-चेहरा की राजनीति करते थे आज उन्हे अचानक से उन लोगों से कोई मतलब नहीं रहा जिन्होने इनके आज के लिया अपना कल बर्बाद कर दिया था। कल तक जो नारे लगाते थे कि, "जहां हुए बलिदान मुखर्जी वो कश्मीर हमारा है।" 
आज अचानक से कश्मीर में ऐसा क्या हो गया कि भारत सरकार को कि पुलवामा में सेना के बंकर हटाने को राजी हो गयी। बात ये नहीं है कि इससे क्या फर्क पड़ेगा, बात  ये है कि आखिर इस कदम से सेना के हौसले पर क्या फर्क पड़ेगा ? वो सेना जो इस देश में हनुमान से कम नहीं है, चाहे भूकंप हो, चाहे बाढ़, चाहे किसी बच्चे का बोरवेल में फंसना या फिर कहीं किसी समुदाय का आरक्षण आंदोलन हो। सेना ही इस देश में संकटमोचक बन कर आती है सामने। मुझे अखबारों के वो चित्र और लेख और समाचार अच्छी तरह से याद है कि, किस तरह से सेना ने लातूर और भुज के भूकंपो से छै माह के बच्चों को सेना ने जिंदा निकाला था, किस तरह से सुनामी से सेना लड़ी थी, किस तरह से उत्तराखंड से लोगों को निकाला था, किस तरह से हरियाणा को बचाया था। 
जब हमारी सेना जो कि दुनिया की शायद एक मात्र सेना होगी जो कि सामाजिक और प्राकृतिक आपदाओं में देश को बचाती है। ये सेना सिर्फ युद्ध ही नहीं करती बल्कि अपने मनुष्य होने का भी एहसास कराती है। कश्मीर में सेना के द्वारा मारे गए आतंकवादी सबको दिखाई देते है, पर बर्फ में दब कर कितने हनुम्त्थपा शहीद होते है वो किसी को भी दिखाई नहीं देते। अभी जो सेना पर पिछले दिनों आरोप लगाया गया है वो निहायत ही शर्मनाक है, जब वो बच्ची कह रही है कि उसके साथ घटना को अंजाम देने वाले सैनिक नहीं बल्कि वहाँ के स्थानीय गुंडे थे, तो फिर इस पर राजनीति की कहाँ जरूरत है। राजनीति करने वाले लोग तो कल तक इशरत जहां को भी निर्दोष बता रहे थे जबकि ये प्रमाणित हो चुका है कि, वो एक आतंकवादी थी। कहने का मतलब ये है कि इस देश को सबसे बड़ा खतरा चीन या पाकिस्तान से नहीं बल्कि हमारे ही राजनेताओं से है, उन राजनेताओं से जो सिर्फ विरोध और स्वार्थ की राजनीति करते हैं। 
कश्मीर को भारत का हिस्सा बनाए रखने के प्रयास में शहीद हो चुके सैनिको, इस कश्मीर के लिए जिन सुहागनों ने अपना सुहाग लुटाया है उन भारतीय वीरांगनाओं, जिन माँओं ने अपने लालों को सीमा पर सिर्फ इसलिए बलिदान होने के लिए भेज दिया कि, "तेरा वैभव अमर रहे माँ, हम दिन चार रहें ना रहें।" उन माँओं के दूध के लिए मैं भारत सरकार के इस बंकर हटाने वाले फैसले का विरोध करता हूँ। 
माफ करेंगे मुझे इस देश के कर्णधार कि मैं कड़वी बात कह रहा हूँ पर सच ये है कि पहले अपने बेटों को सेना में भेजो और फिर ये कदम उठाओ तो जाने कि किसके गुर्दे ज्यादा मजबूत है देश की जनता के या कि नेताओं के। 

शेष फिर कभी ...................................................। 

मनोज चारण (गाडण) "कुमार"
मो. 9414582964  

Tuesday, March 29, 2016



हिन्दी में दोहे लेखन का प्रयास किया है। पेश करता हूँ ..............................



शेष फिर कभी .............।

 मनोज चारण

Sunday, March 20, 2016


नमस्कार !

    कल 23 मार्च है, इस देश के महान सपूतों भगतसिंह, सुखदेव और राजगुरु का शहीदी दिवस। मन में अजब सी उदासी है, अजब सी खलिस है, कि क्यों वो लोग चढ़ गए थे फांसी पर इस देश के लिए। यदि हम गौर करेंगे तो हमे पता चलेगा कि, इस देश के लिए जान देने वाले अधिकांश क्रांतिकारी बीस से सत्ताईस वर्ष कि आयुवर्ग के थे। भगतसिंह, सुखदेव, राजगुरु, चंद्रशेखर आजाद, अशफाक़उल्ला, प्रतापसिंघ, खुदीराम बोस ये सब तो पच्चीस वर्ष के भी नहीं हुए थे, यानी कि ये लोग तो भारतीय आश्रम व्यवस्था के अनुसार तो अपने ब्रह्मचर्य कि उम्र तक भी पार न कर सके थे, ऐसे में इनको सोच कैसे बन पायी होगी क्रांति की राह पर चलने की, कैसे इन लोगों ने समझाया होगा अपने-आप को कि, जबकी उनकी उम्र किसी के काले केशों में उलझने की थी उस उम्र में वो अदालतों के केशो में उलझ गए। जब उनकी उम्र थी दुनिया कि रंगीनीयों में खोने की उस वक्त वे काल-कोठरियों के अंधेरों से टकरा रहे थे। क्या था उनके मन में, क्या थी उनकी जिजीविषा?
       समझ में नहीं आता ना, कैसे आएगा समझ में जब तक हम अपने-आप को उस स्थान पर नहीं रखेंगे, कैसे समझ में आएगा जब तक कि हम खुद से ही सवाल नहीं करेंगे कि, हमने इस देश में जन्म क्यूँ लिया है? नहीं समझ में आएगा तब तक जब तक हम यही सोचेंगे कि, कोई भऊँ नृप, हमऊँ का हानि।
    हमे समझना पड़ेगा कि, आज के दौर के तथाकथित क्रांतिकारी जो अपने आपको भगतसिंह का उत्तराधिकारी मानते है और कहते हैं, वो भगतसिंह के चरणों की मिट्टी की हौड़ नहीं कर सकते।
    एक अजीम-ओ-शान क्रांतिकारी समूह के श्रीचरणों में मैं वंदन करता हूँ, और अपनी कृतज्ञता प्रकट करता हूँ कि, हे महानायकों मैं इसलिए आजाद भारत में सांस ले पा रहा हूँ कि, आपने इसके लिए अपने प्राण तक न्योछावर कर दिये थे। मैं शुक्रिया अदा करता हूँ आप सब शहीदों का, और अपने दौर के देश-विरोधी बाते करने वालों की करतूतों पर मैं शर्मिन्दा भी हूँ।
             शेष फिर कभी ...........................। 

मनोज चारण (गाडण) कुमार
रतनगढ़ (चूरु) राज.
मो. 9414582964

Thursday, March 3, 2016



        अर्थात गुरु के उपदेश एवं शास्त्रों से जड़बुद्धि भी साधारण काव्य रच सकता है, किन्तु श्रेष्ठ काव्य तो प्रतिभा द्वारा ही सृजित होता है।
        जब आचार्य भामह ने ये कहा होगा तब उनकी मनःदशा क्या रही होगी, क्या उनके मन में प्रतिभा की छवि बनी होगी, क्या उनके सामने किसी वाल्मीकि, किसी व्यास या किसी कालीदास का चित्र था, या फिर भामह ने यूं ही प्रलाप कर दिया था। निःसंदेह भामह के सामने कोई तो परिकल्पना जरूर थी जो उन्हें समझा रही थी, बता रही थी कि, प्रतिभा का कोई सानी नहीं होता, प्रतिभा का कोई जबाब नहीं होता। हम इतिहास में अनेक उदाहरदेख सकते है। वाल्मीक, कालीदास के उदाहरण तो जग जाहीर हैं ही, लेकिन हम देख सकते है कि हमे इतिहास बताता है कि, किस प्रकार एक साधारण सा दिखने वाला लड़का चंडीगढ़ में अचानक किसी खिलाड़ी के स्थानापन्न के रूप में उतरता है और विश्व क्रिकेट में पहले हरफनमौला के रूप में ही अपनी काबिलियत नहीं दिखाई बल्कि भारत को पहला विश्वकप भी दिलवाया। इसी प्रकार हम ओशो का उदाहरण दे सकते है, मुगल शासक अकबर को भी हम इसी में शामिल कर सकते है।
       तो भामह ने बिलकुल सही कहा है कि, प्रतिभा का कोई मोल नहीं होता, अभ्यास से एकलव्य और अश्वथामा बना जा सकता है लेकिन अर्जुन और कर्ण सिर्फ पैदा ही हो सकते है। अर्नोल्ड स्वर्ज्नेगर बना जा सकता है, लेकिन चार्ली चैपलिन पैदा ही होते है, ध्यानचंद, मोहम्मद अली, लारा, सचिन, दारासिंह, मोहम्मद रफी, किशोर सिर्फ पैदा ही हो सकते है।  
        अतः यदि पहली बार आपके मन में कोई पंक्ति आ रही है तो आप समझे कि आप पर ईश्वर कि मेहर हो रही है, आपको वो अपनी प्रतिभा से आलोकित करना चाहता है। बस उस पंक्ति को अपनी तरफ से सँवारने कि कोशिस न करें उसके साथ बहें और बहने दे कविता की धारा को, और वास्तव में आपको प्रतिभा मिली है तो निःसंदेह आप एक कवि बन कर ही रहेंगे।

                                  शेष फिर कभी ......................................।

                                          मनोज चारण (गाडण) कुमार
                                  रतनगढ़ (चूरु) 
नमस्कार दोस्तों !

आज जब हिन्दी साहित्य को पढ़ रहा था तो अग्निपुराण का एक श्लोक पढ़ने मे आया तो आज इसी श्लोक पर ही चर्चा कर लेते है, -


नरत्वं दुर्लभं लोके, विद्या तत्र सुदुर्लभा।
कवित्वं दुर्लभं तत्र, शक्तिस्तत्र सुदुर्लभा॥
-अग्निपुराण

अर्थात इस लोक में मनुष्य होना बहुत ही दुर्लभ होता है, उसमें भी मनुष्य होकर विद्या-अर्जन करना और भी दुर्लभ काम होता है, विद्यावान होकर कवि होना उससे भी दुर्लभ और कवि होकर कवित्व की शक्ति प्राप्त करना तो महान दुर्लभता है।

सीधा सा अर्थ है, की चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद हमे ये मनुष्य शरीर मिलता है और हमारा विद्या-ग्रहण करना भी एक महानता का काम होता है। विद्यावान तो इस दुनिया में बहुत से मिल जाते है लेकिन उन लोगों में कवि बनने का सौभाग्य बहुत कम लोगों को मिलता है। हाँ कुछ लोग अभ्यास करके कवि बन जाते है, लेकिन कवि बनना और कवि होना बहुत अलग होता है। किसी भी भाव को जीवंत करना कवि ही कर सकता है, उगते सूर्य को करोड़ों लोग देखते है, ढलते भी देखते है, पंछियों का कलरव बहुत लोग सुनते है, लेकिन इस सबके साथ तादात्म्य सिर्फ कवि ही कर सकता है। किसी के आंसुओं को अपनी आँखों से बहाने का काम कवि ही कर सकता है। किसी के दुख को बांटने का काम तो बहुत से लोग कर सकते हैं, लेकिन किसी के दुख से खुद को साझा करने का जो हुनर कवि के पास होता है वैसा हुनर होना ही उसे समाज में अलग मुकाम पर खड़ा कर देता है। आम जन को नहीं दिखता, आमजन को नहीं महसूस होता वो कवि को दिखता है, महसूस होता है। इसलिए कवि इस समाज में हमेशा से श्रद्धा का पात्र रहा है।
लेकिन आज के मंचों के कुछ खिलंदडों ने कवि का मतलब मज़ाक बना के रख दिया है। ठीक वैसे ही जैसे कुछ लोभी और लालची अध्यापकों ने शिक्षक को मज़ाक बना दिया है। इसमें सुधार भी हमे ही करना होगा और फिर से कालीदास और तुलसीदास के चरित्र को जीवंत करना होगा।

- मनोज चारण (गाडण) “कुमार”
रतनगढ़ (चुरू)

Friday, February 26, 2016









सभी को सादर जैश्री हिंगलाज ! 

                                      आज 26 फरवरी है, देश के एक महान क्रांतिकारी और विलक्षण व्यक्तित्व वीर सावरकर की पुण्य-तिथि है। क्या हमे याद है ? नहीं, तो क्यों नहीं ? क्योंकि हमे हमेशा यही बताया गया कि, वीर सावरकर का भारतीय क्रांति में योगदान नहीं के बराबर था, जिस सेल्यूलर जेल में उन्हे कोल्हू मे बैल कि जगह जोता गया, उस जेल से उनके नाम कि पट्टिका तक पीछे कि सरकार के एक मंत्री ने हटा दी। क्यों? देश को उस महान हुतात्मा को बार-बार प्रणाम करना चाहिए जिसने अपनी ज़िंदगी में दो बार काले-पानी कि सजा को भोगा। वीर सावरकर ही वो पहले हिंदुस्तानी थे जिन्होने सन्न सत्तावन कि क्रांति को भारत का प्रथम स्वाधीनता संग्राम बताया था, जिस तथाकथित इतिहासकार मात्र सैनिक विद्रोह कह कर अस्वीकार करते है। 
                           ऐसी पुण्यात्मा को मेरा वंदन और बार बार प्रणाम।


                                                                                शेष फिर कभी ..................................। 


मनोज चारण (गाडण)  "कुमार"
लिंक रोड, रतनगढ़ (चूरु) 
मो. 9414582964