Monday, July 17, 2017

जातिवादी अतिवाद का वर्तमान दौर कहाँ जाकर थमेगा ?

जातिवादी अतिवाद का वर्तमान दौर कहाँ जाकर थमेगा ?

समाज की व्याख्या करते हुए कभी इमाइल दुर्खिम ने ये नहीं सोचा होगा कि लोग समाज की व्याख्या अपने हिसाब से करते हुए इसे व्यक्तिगत स्वार्थ से भी जोड़ लेंगे। समाजशास्त्रियों ने कभी ये नहीं सोचा होगा कि समाज के नाम पर सिर्फ जातिवाद ही हावी हो जाएगा और समाज की वृहद व्याख्या बिल्कुल संकुचित हो जाएगी।  
      पिछले काफी दिनों से हमारे राजस्थान में एक जाती विशेष के लोग आंदोलन कर रहे हैं। एक ऐसे मुद्दे पर ये आंदोलन चल रहा है जो कानूनी ढंग से भी सुलझाया जा सकता है। कानूनी रूप से भगोड़ा घोषित किए हुए एक अपराधी की पुलिस कार्रवाही में मौत हो जाती है और उसकी मौत पर कुछ असामाजिक तत्वों द्वारा भड़काने वाले वीडियो फेसबुक पर, व्हाट्सअप पर अपलोड कर दिये जाते हैं तो दूसरी तरफ कुछ तथाकथित समाजसेवक का चौला पहन चुके लोग उस मृत अपराधी के पक्ष में अपनी जाती को लामबंद होने की अपील करते हैं। यह एक मात्र घटना नहीं है और पहली भी नहीं है जिसमे कोई जाती विशेष उग्र होकर आंदोलन कर रही है बल्कि इसी तरह आज से ठीक ग्यारह साल पहले भी एक जाती विशेष ने पुलिस कार्रवाही में मारे गए एक हिस्ट्रीशीटर की मौत पर बवाल खड़ा किया था।
      समाज के नाम पर, जाती के नाम पर वोट मांगने के मामले में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने सपष्ट कहा है कि, कोई यदि जाती या समाज के नाम पर वोट मांगे तो उसके विरुद्ध दंडात्मक कार्यवाही होनी चाहिए। लेकिन फिर भी बेधड़क हो कर जाती के नाम पर वोटों की अपील की जाती है, धड़ाबंधी की जाती है। जातीवाद कुछ इस तरह से हावी हो चुका है चुनावों पर कि लगभग हर राजनीतिक दल अघोषित रूप से जातिगत आधार पर ही टिकटों का बंटवारा करते हैं।
      आरक्षण के लिए गुर्जर और जाट आंदोलनों के विध्वंशक रूप को हम देख चुके हैं। रेल पटरी उखाड़ना, बसों को जलाना, सरकारी सम्पत्तियों को जलाना, आमजन से दुर्व्यवहार करना, महिलाओं से बदतमीजी करना, पुलिस और फौज के विरुद्ध पत्थरबाजी आदि करना इन जातिगत आंदोलनों में अब आम बात हो चुकी है। कश्मीर में बुरहान वानी के जनाजे में हजारों लोगों का इक्कठा होना, उत्तरप्रदेश के विभिन्न हिस्सों में दंगे होना, हत्याएँ होना, आसाम में दंगे होना, अब बंगाल में आग लगी हुई है। कहीं जाती के नाम पर तो कहीं धर्म के नाम पर अतिवाद का एक नया दौर चला है।  
      यह सिर्फ दंगों तक ही नहीं सिमट कर रह गया है बल्कि अब तो ये जातिवाद हमारे सभ्य समाज में कुछ इस तरह से घर कर गया है कि, सही या गलत क्या है इसकी परवाह किए बिना सिर्फ जाती के नाम पर समर्थन किया जाता है। यहाँ तक देखने में आया है कि लोग जब बीमार हो जाते हैं तो ठीक होने के लिए उसी डॉक्टर से अपनी बीमारी का इलाज कराते हैं जो अपनी जाती का होता है। प्रशासन में अपनी जाती के अधिकारी की पोस्टिंग होने पर यूं जश्न मनाए जाते हैं जैसे खुद का ही पदस्थापन हो गया हो। प्रतियोगी परीक्षाओं में और बोर्ड परीक्षाओं में पास होने वाले विद्यार्थियों के जातिगत सम्मान समारोहों की पूरी शृंखला चलती है। पिछली आईएएस परीक्षा में एक लड़की अपनी मेहनत से पास क्या हुई लोगों ने फेसबुक और व्हाट्सअप पर इतना हो-हल्ला मचाया जैसे उस लड़की ने इन सबको पूछ कर ही सिविल सर्विस के लिए फॉर्म भरा था।
      जातिवादी अतिवाद के इस दौर ने हमारे राष्ट्रीय नायकों तक को बाँट के रख दिया है। जिन स्वतन्त्रता सेनानियों ने अपने देश के लिए कुर्बानियाँ दी थी आज उनको जाती-गौरव, जाती-रत्न और ना जाने किन-किन नामों से नवाजा जाता है। लोक देवताओं तक पर अब तो जातिवादी जुमले गढ़े जा रहे हैं और इसको हवा देने का काम करते हैं कुछ स्वार्थी व्यक्ति जिनके हित छुपे होते हैं इन हथकंडों में। समाज का वर्तमान दौर जातिवादी अतिवाद का दौर है। इस अतिवाद के दौर में हर जाती अपनी विशेषता को रेखांकित करने में, सामाजिक और राजनीतिक ताकत प्रदर्शित करने में लगी हुई है। इस भयानक दौर में एक समस्या उन जातियों के सामने भी है जो संख्यात्मक दृष्टि से बहुत छोटी है। जब बहुसंख्यक जातियाँ अपने उग्र प्रदर्शन करती है, तो छोटी जातियों के लोगों में अनायास ही उन बड़ी जातियों के प्रति द्वेष पैदा होने लगा है। असल चिंता यहीं शुरू होती है कि, हमारा समाज इस जातिवादी अतिवाद के कारण जा कहाँ रहा है ? इस समस्या पर गंभीर रूप से चिंतन की आवश्यकता है कि आखिर ये जातिवादी अतिवाद हमारे समाज को किधर ले जा रहा है ? लाव हाथों से निकल जाये उससे पहले ही हमें चेतना होगा इस गंभीर समस्या के प्रति।

                                        मनोज चारण “कुमार”
                                                    लिंक रोड़, वार्ड न.-3, रतनगढ़ (चूरू)
                                       मो. 9414582964