मौत
से था जिनका याराना :
क्रांतिवीर कुँवर
प्रतापसिंह बारठ
इतिहास में नाम
लिखाने का मौका बार-बार नहीं मिला करता। हर कोई इतिहास में नाम लिखाना चाहता है, किन्तु लिखा नहीं पाता। खुद को मिले
मौके को भुनाना ही महान व्यक्तित्व की निसानी होता है। कोई जन्म से ही महान नहीं
होता, बल्कि महान बनाते है
व्यक्ति के कर्म। व्यक्ति के कर्म उसके परिवार, मित्र, विद्यालय और आस-पास के माहौल से ही
निर्धारित होते हैं। कुँवर प्रतापसिंह बारठ भारतीय इतिहास गगन-पटल पर चमकने वाला
एक ऐसा ही उज्ज्वल नक्षत्र है,
जिसने अपने कर्म से न सिर्फ अपने परिवार को,
न सिर्फ अपने समाज और जाति को,
न केवल राजस्थान को बल्कि पूरे भारत-वर्ष को गौरवान्वित किया था।
प्रतापसिंहजी का जन्म पिता क्रांतिकारी बारठ केशरीसिंहजी के
घर माता माणक कुँवर की उज्ज्वल कोख
से
हुआ था। 24 मई 1893 ई. को उदयपुर
में कुँवर
प्रतापसिंह का जन्म हुआ था।
अल्पायु में पिताश्री ने
बालक प्रताप को महान क्रांतिकारी अर्जुनलाल
सेठी की गोद में सौंप दिया था और सेठी साब ने प्रताप को और उनके बहनोई को मास्टर अमीरचंद के पास
भेज दिया। अमीरचंद ने रासबिहारी बोस से
मिलकर प्रताप और उनके साथियों को रेव्योलूसनरी पार्टी में भर्ती करवा दिया। बोस के निर्देशन में बालक प्रताप एक युवा
क्रांतिकारी में बदल
गया
था। रासबिहारी बोस ने
अपने एक पत्र में लिखा है,
“प्रताप को देखा था तो मालूम हुआ कि उसकी
आँखों से आग निकल रही है। प्रतापसिंह प्रकृति से ही सिंह था।”
प्रतापसिंह ने भारत
सरकार के तात्कालिक गृह सचिव सर रेजिनल्ड क्रेडक को मौत के घाट उतारने का जिम्मा लिया था, परंतु क्रेडक बीमार पड़ गया और इस वजह से
उसका बाहर आना-जाना बंद हो गया
तो उस पर हमला नहीं हो सका था।
1912
में पूरे भारत को अपने जल्लो-जलाल के रूतबे के नीचे लाने के लिए दिल्ली में एक
विशाल जुलूस निकाला जाना था, जिसमें वायसराय लॉर्ड हार्डिंग्ज
द्वितीय भी
शामिल होना था। रासबिहारी बोस ने इस जुलूस पर हमला करने की रणनीति बनाई और इसका जिम्मा दिया जोरावरसिंहजी बारठ
और उनके भतीजे कुँवर
प्रतापसिंह को। प्रतापसिंह
ने काफी दिनों तक पत्थर फेंक कर इसका अभ्यास भी किया था, परंतु कद में छोटे होने के कारण बाद
में ये बम फेंकने
का जिम्मा जोरावरसिंहजी को दिया गया। चांदनी
चौक से निकल रहे
विशाल
जुलूस पर जोरावरसिंहजी ने बम फेंक कर धमाका कर दिया था और उसके बाद दोनों
चाचा-भतीजा वहाँ से फरार हो गए। इस धमाके में हार्डिंग्ज और उसकी पत्नी बुरी तरह से घायल हो गये और उसका छत्र उठाने वाला बलरामपुर का जमींदार महावीरसिंह उसी वक्त मौत के
मुंह समा गया। हार्डिंग्ज
के
जिंदा बचने पर आदरणीय गांधीजी ने उसके जिंदा बचने की खुशी में उसकी सलामती का तार
भी भेजा था। इस बात पर सवाल ये उठता है कि, क्या ये हमारे राष्ट्रपिता का हमारे क्रांतिकारियों के प्रति
सम्मान का भाव था ?
कुँवर प्रताप और उनके चाचा जोरावरसिंह वहाँ
से तो फरार हो गये लेकिन
दिल्ली
से बाहर जाने वाले हर रास्ते को पुलिस
ने
घेर रखा था, ऐसे
में
चाचा-भतीजा दोनों, रात
भर दिल्ली के यमुना पुल
के नीचे लगी जंजीरों को पकड़ कर लटके रहे और नीचे बाढ़ से उफनती यमुना का ठंडा पानी
उनकी कमर तक को ठंडा कर रहा था। अल सुबह दोनों ही क्रांतिकारी वहाँ से फरार हुए
लेकिन नदी किनारे पुलिस के दो जवानों ने इन्हें रोक लिया। जोरावरसिंहजी ने उन
दोनों को तलवार से मौत के घाट उतार दिया। जोरावरसिंहजी तो वहाँ से राजस्थान पहुँच गए लेकिन प्रताप बीच में ही रुक गए थे।
प्रतापसिंहजी को बम
बनाने के अपराध में बनारस षडयंत्र केस रचकर गिरफ्तार कर
लिया गया था और इसी केस में उन्हें फरवरी 1916 में मात्र बाईस वर्ष की उम्र में
पाँच वर्ष की जेल की सजा सुना दी गई और उन्हें बरेली केन्द्रीय जेल भेज दिया गया।
बरेली जेल में प्रताप को अमानवीय यातनाएं दी गई और क्रूरतापूर्ण व्यवहार किया गया। जब इस यातना से प्रताप नहीं
डिगे तो उन्हे प्रलोभन दिया गया कि उनके पिता जो कि उस वक्त हजारीबाग जेल में थे उनको छोड़ दिया जाएगा, लेकिन प्रताप इस पर सहमत नहीं हुए। उन्हें ये भी प्रलोभन दिया गया कि, वो यदि अपने साथियों के नाम बता देते
हैं तो उनकी जब्त जागीर लौटा दी जाएगी और उनके चाचा के नाम जारी गिरफ्तारी वारंट भी वापिस ले लिया जाएगा, लेकिन जो बात से डिग जाए वो चारण नहीं
होता, प्रताप भी नहीं
डिगे। अंग्रेजों ने अंतिम हथियार के रूप में प्रताप को भावुकता में बहाने की कोशिश की और कहा कि,
तुम्हारी माँ की हालत देखो और उसके आंसुओं को देखो, यदि तुम अपने साथियों के नाम बता देते
हो तो तुम्हारी माँ को रोना नहीं पड़ेगा। परंतु प्रताप ने तो जैसे मौत से दोस्ती कर ली थी। अपनी इसी दोस्ती
को निभाया प्रताप ने और इतिहास रचने वाला कारनामा करते हुए इस भावुकता भरे अत्याचारी प्रलोभन का जबाब अपनी कठोर वाणी से दिया, “मेरी माँ को रोने दो जिससे सैंकड़ों को
न रोना पड़े। यदि मैने दल का भेद खोल
दिया
तो यह मेरी वास्तविक मृत्यु होगी और मेरी माता का अमिट कलंक होगा।”
इस तरह की बात
इतिहास में सिर्फ भगतसिंह ने ही कही थी,
लेकिन प्रताप इस मामले में भगतसिंह के अग्रगामी थे। बरेली जेल के रजिस्टर में लिखे गए पृष्ठ संख्या 106/107 के अनुसार 24 मई, 1918 को मात्र पच्चीस वर्ष की अल्पायु में ही अंग्रेजों की क्रूर
यातनाओं को झेलते उस नौजवान की
जवानी
थक गई और चारण कुल गौरव प्रताप चिर-निद्रा में सो गए।
बरेली जेल में
प्रतापसिंहजी से पूछ-ताछ करने वाले अंग्रेज़ अफसर आर्चीबाल्ड क्लीवलैंड ने उनसे पूछ-ताछ करने
के बाद अपनी टिप्पणी में लिखा था, “मैंने आज तक प्रतापसिंह जैसा वीर और बिलक्षण बुद्धि वाला युवक नहीं देखा। उसे
सताने में हमने कोई कसर नहीं रखी पर वह टस से मस नहीं हुआ। हम सब हार गए वह विजयी हुआ।” किसी अंग्रेज़ अधिकारी का यूं स्वीकार कर
लेना कि, वो हार गए थे उस
क्रांतिकारी के लिए सही मायने
में जीत थी।
प्रताप
का महत्व सिर्फ इस लिए ही नहीं है कि वो अल्पायु में ही शहीद हो गए थे, बल्कि इसलिए भी है कि, वो उस परिवार से नाता रखते हैं जिस
परिवार ने अपना पूरा खानदान क्रांति की राह में झौंक दिया था। पिता केशरीसिंह बारठ, चाचा जोरावरसिंह बारठ,
जीजा ईश्वरदानजी आशिया और स्वयं प्रताप। इस देश के इतिहास में ऐसे सिर्फ दो परिवार
हुए है जिन्होने अपने पूरे खानदान को राष्ट्रहित पर बलिदान किया हो। एक तो दसमेश
गुरु श्री गोविंदसिंहजी महाराज का परिवार और दूसरा राजस्थान का ये बारठ परिवार।
महान स्वतंत्रता सेनानी शचीन्द्र सान्याल ने बारठ परिवार और प्रतापसिंह के बारे में अपने संस्मरण में लिखा है, “यह परिवार राजपूताना के गणमान्य समृद्ध
जमींदारों में गिना जाता था,
किंतु स्वदेश प्रीति और तेजस्विता की खातिर इन्हें अपना घर-बार बर्बाद करना
पड़ा।..............प्रताप वैसे
कर्तव्य की खातिर ही उस कार्य में योग नहीं देते थे। उन जैसे युवक मैंने बहुत ही
कम देखें हैं। प्रताप केवल स्वयं ही आनंद में रहतें हों ऐसा नहीं, उनके संग में जो रहते थे वे भी आनंद
पाते थे।......... मन में एक बार नीचे फिसल पड़ने पर उसे फिर अपनी जगह लौटा लाना
कितना कठिन कार्य है,
यह चिंताशील व्यक्ति ही समझ सकते हैं।”
सम्पूर्ण राजस्थान
को इस महान सपूत पर नाज होना चाहिए और इस जैसे पुत्र को प्राप्त करने वाला समाज तो
निःसंदेह महानता और गौरव का अनुभव करता है। उनकी एक सौ चौबीसवीं जयंती के शुभ और
ऐतिहासिक अवसर पर ऐसे
मेरे अग्रज और पूर्वज भ्राता के श्री चरणों में मैं बार-बार वंदन करता हूँ।
मनोज चारण (गाडण) “कुमार”
लिंक रोड़, वार्ड
न.-3, रतनगढ़ (चूरु)
मो. 9414582964