Thursday, December 19, 2013

क्या भारत अपने 2500 साल पुराने लोकतन्त्र की तरफ बढ़ रहा है...........?

नमस्कार !

                आज कुछ बाते भारत के लोकतंत्र के बारे में कर लेते है, बात इतिहास से शुरू करते है, इतिहास मे हमे कुछ उदाहरण मिलते है की चन्द्रगुप्त मोर्य, चन्द्रगुप्त द्वितीय, हर्षवर्धन, अकबर, महाराजा रणजीतसिंह, महाराजा गंगासिंह आदि को जब-जब कुछ विशेष बात पता करनी होती थी, तो वो फिर जनता के बीच भेष बदल कर जाते थे, वहाँ पर उनको अपनी समस्या के बारे मे या राज-काज कैसे सुधरे इसके बारे मे समाधान मिलता था, और वो उसी के अनुरूप अपना फैसला लेते थे। ये सभी राजा अपने समय के ही नहीं बल्कि हर समय के लिए नजीर बन चुके है। भले ही इनका राज्य कितना ही छोटा रहा हो या बड़ा रहा हो। 
              भारत कि आजादी के समय  हमारे भारत का संविधान जब बना तो वो एक तरह से जनमत संग्रह की ही उपज था, इसी प्रकार विश्व मे अनेक बार जनमत संग्रह होते आए है। दिल्ली के निर्भया-दामिनी केश मे यही तो हुआ था, या फिर चाहे जेसिका लाल हत्याकांड मे हुआ हो।
               भारत में पंचायती राज को काफी महत्व दिया जाता है, गांधीजी ने तो पंचायती राज को ही असली सुराज कहा था।  पंचायती राज मे भी ग्रामसभा की अवधारणा है जो यह तय करती है कि, ग्राम कि हर समस्या को सुलझाने मे हर ग्रामवासी का योगदान होना चाहिए, और फिर ये सब आखिरी तो जनता का लोकतन्त्र मी भागीदारी का ही तो प्रमाण है।
               यदि ये सब सही है तो फिर आम आदमी पार्टी द्वारा अपने सरकार बनाने या ना बनाने के फैसले पर एक बार फिर जनता कि सलाह ली जाती है तो किसी के भी पेट मे दर्द क्यों होता है ? क्या इस देश मे फैसला लेने का हक किसी साहजादे, साहबजादे, महारानी, महाराजा को ही है। ये तो वही नजीर हो गई, "ना खाता ना बही, जो केशरी कहे वो सही।"
                किसी पार्टी को निर्देश कहीं से मिलते है, किसी को कहीं से। कोई तो अपने नेता को देश के 120 करोड़ जनता का प्रतिनिधि बताते है, कोई अपने को, और सच ये है कि जब चुनाव के बाद वोट के प्रतिशत की  भागीदारी देखे तो पता चलता है कि देश कि सरकार मात्र 30 प्रतिशत वोट वाले लोग चला रहे है, ये लोकतन्त्र कि सीमा है, कमी है। इसे स्वीकार करना चाहिए, इसमे सुधार करना चाहिए।
                मुझे आइडिया कंपनी का वो विज्ञापन याद आता है जिसमे एक विधायक नेत्री अपनी जनता से एसएमएस कर पूछती है कि पुल बनना चाहिए या नहीं। जनता जबाब देती है और पुल बन जाता है।  यदि वही प्रक्रिया आम आदमी पार्टी भी अपनाती है तो फिर गलत कहाँ है ?
                क्या ये लोकतन्त्र मे फिर से वही अवधारणा तो नहीं बन रही जो कभी वैशाली गणतन्त्र में हुआ करती थी, या वज्जी संघ मे हुआ करती थी। जब हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र कि दुहाई देते है तो फिर हमे दुनिया के सबसे पुराने लोकतन्त्र कि अवधारणा को भी जीना चाहिए, जो हमारी उन्नत स्थिति थी। हम क्यों नहीं दुनिया के सामने एक और नजीर रख सकते कि भैया देखो ये भी होता है, इस देश में। सच मे गांधी के स्वराज कि तरफ केजरीवाल का ये कदम स्वागत के योग्य है।
                कारगिल युद्ध परमवीर चक्र विजेता शहीद कैप्टेन मनोज पांडे ने अपनी डायरी में लिखा था कि, "किसी लक्ष्य को प्राप्त करना तो महान होता ही है, पर किसी महान लक्ष्य कि प्राप्ति मे असफल होना कोई बुरी बात नहीं, क्योंकि महान लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए उठाया गया कदम ही काफी महान होता है।"
                  तो केजरीवाल के इस कदम का स्वागत होना चाहिए, जिसने पिछले 2 साल में राजनीति कि 60 सालों से जंग खा चुकी परम्पराओ पर रेजमाल तो घिसा है, कम-से-कम किसी ने हिम्मत तो की, जो इन सड़ती परम्पराओ को धूप मे रखने की कोशिस तो की है।
क्या ये सही नहीं है........................... ?
यदि नहीं तो क्यों नहीं ......................?
यदि हाँ तो फिर क्यों नहीं मिले इसे समर्थन ..............................?
 
सादर नमस्कार !
 
मनोज चारण। 

Friday, December 6, 2013

क्या सोचता है युवा … 

नमस्कार ! 

            कल मैंने देखा कि जिस युवा की बात लोग  करते रहते है वो क्या वास्तव में ही कुछ कर सकता है समाज के लिए या फिर लोग यूँ ही चिल्लाते है।  मैंने उस युवा को कल देखने के बाद इस पर विचार किया कि सच में युवा हमें जैसा दीखता है वैसा है नहीं। 
             दिखने का तो क्या है सूरज भी ग्रहण के वक्त काला दिखता है, पर सच में होता नहीं है, यही बात युवा पर भी लागु होती है। युवा हमें अपाचे बाइक पर बैठा, सिगरेट का धुँवा उड़ाता, काला चश्मा लगाये, कानो में इयर फोन लगाये, नाइके की टोपी लगाये और दीन-दुनिया से बेखबर दिखता है। 
              पर कल मैंने देखा के अलमस्त सा लगने वाला ये युवा मन ही मन डरा हुआ है, न सिर्फ आज से बल्कि इस समाज से, कल सामने आने वाली बेरोजगारी कि समस्या से भी।  इसीलिए वो झुक जाता है जब देखता है किसी मंदिर को, किसी मस्जिद को भी।  अपाचे चलाने वाला युवा उतरता है, गोगल को पीठ पीछे सलमान कि तरह डालता है, चप्पल खोलता है और गोगाजी कि मेड़ी पर बड़ी शिद्दत से नमन करता है। 
              मुझे लगता है कि ये वो युवा है जिसके मन में सपनीला, चमकीला रजतवर्णी संसार तो है पर कहीं पर मन कि गहराइयों में भारतीय संस्कार भी दबे है, छुपे है।  यदि इस युवा पर भारत गर्व करता है तो सही है।  
        पर हमें यह भी ध्यान देना चाहिए कि कहीं ये किसी डर से तो नहीं झुक रहा है, यदि ऐसा है तो फिर समाज को सोचना चाहिए, युवा के मन में सकारात्मकता होनी चाहिए डर नहीं। हमें इसे गहराई से समझना पड़ेगा। 

                                                जय श्रीअम्बे !


                                                                 मनोज चारण